

-संपादकीय-
उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में प्रिंट मीडिया का व्यवस्थित इतिहास 200 वर्षों से अधिक का माना जाता है। विगत सालों में टेलीविज़न पत्रकारिता का तेजी से विस्तार हुआ है परंतु साथ ही टीवी पत्रकारिता में ‘सबसे पहले खबर दिखाने’ और ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ के नाम पर ‘व्यावसायिक प्रतिबद्धता’ और ‘पेशे की बुनियादी नैतिकता’ के उल्लंघन के मामले वर्तमान समय में चरम पर है। क्या यही पत्रकारिता की निष्पक्षता है?
पत्रकार हमारे देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है। उससे आशा की जाती है कि वह तथ्यों को समग्र रूप में एकत्र कर उन्हें सही ढंग से आम आदमी तक पहुंचाए। वर्तमान पत्रकारिता के परिदृश्य में समाचारों की परिधि केवल घटनाओं, तथ्यों, विचारों या विवादों के विवरण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राजनेताओं, अभिनेताओं और उनकी निजी ज़िंदगी से जुड़े सारे किस्से-कहानियाँ न्यूज़ हैडलाइन की शोभा बढ़ा रहे हैं। भूमंडलीय दौर की ग्लैमरस पत्रकारिता ,राजनीति और राष्ट्रीय क्षेत्र की सीमाओं को लाँघकर अंतर्राष्ट्रीय जगत की बाज़ार मूल्य तक की ख़बरों को प्राथमिकता दे रही है।
सनसनीखेज, पक्षपातपूर्ण कवरेज़ और पेड न्यूज आधुनिक मीडिया का चेहरा बन चुकी है। किसी भी स्थिति में राय देने वाली रिपोर्टिंग को व्याख्यात्मक रिपोर्टिंग नहीं कहा जा सकता है। व्यापारिक समूह और यहाँ तक कि राजनीतिक दल अपने हितों की पूर्ति समाचार पत्र और टेलीविज़न चैनलों के स्वयं संचालन के माध्यम से कर रहे हैं। यह चिंताजनक होने के साथ ही इससे पत्रकारिता के मूल उद्देश्य समाप्त हो रहे हैं. अधिकारों और कर्तव्यों को अविभाज्य कैसे माना जा सकता है।
मीडिया को न केवल लोकतंत्र की रक्षा करने के लिये प्रहरी के रूप में कार्य करना चाहिये वरन् उसे समाज के वंचित वर्गों के हितों के रक्षक के रूप में भूमिका का निर्वहन करना चाहिये। मोबाइल फोन/स्मार्ट फोन के आने के बाद सूचनाओं का आदान-प्रदान बहुत ही तेज हो चूका है। सच कहिये तो हर स्मार्ट फोन उपयोगकर्ता एक संभावित पत्रकार बन गया है। हालाँकि इंटरनेट और मोबाइल फोन ने सूचना की उपलब्धता का लोकतांत्रीकरण किया है, परन्तु फेक न्यूज़ और अफवाहों के प्रसार की घटनाओं में भी बहुत तेजी आई है। पत्रकारों को इस प्रकार के समाचारों और नकली आख्यानों से दूर रहना चाहिये क्योंकि उनका उपयोग निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिये हमारे बहुलवादी समाज में विघटन और विभाजन पैदा करने में किया जा सकता है और देखा गया है कि कई मौकों पर ऐसा किया भी गया है।
अपेक्षित परिवर्तन लाने हेतु भ्रष्टाचार और लैंगिक एवं जातिगत भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए प्रिंट, टेलीविज़न और डिजिटल समाचार चैनलों को जनता की राय बनाने में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये। किंतु वास्तव हो क्या रहा है यह हम सब जानते हैं। प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक किसी ना किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हुए पड़े हैं। जिस कारण लोगों तक निष्पक्ष सूचनाएं नहीं पहुंच पा रही हैं।
विडंबना यह है कि अपवाद स्वरूप कुछेक ऑनलाइन वेबसाइटों और टीवी चैनलों को छोड़कर अधिकांशतः अतिरंजित खबरें प्रसारित कर रहे हैं। पहले मंत्र था—खबरें सही हों, आकलन आप जैसा चाहे करें. यह बात प्रिंट मीडिया और टीवी पर लागू थी. जबकि आज अलग-अलग चैनलों पर एक ही घटना के भिन्न रूपांतरण दिखते हैं और साथ ही अजीबोगरीब विश्लेषण। एंकर का एक अपना राजनीतिक रुझान होता है और विशेषज्ञों का चयन वार्ता के निष्कर्षों पर प्रश्न उठाता है। पूरे वार्तालाप में सुर, शब्दावली और सामग्री इतनी गलीज होती है कि एक सभ्य नागरिक के लिए यातना जैसी होती है। दर्शकों की विचारधारा का वर्ग कार्यक्रम से जुड़ा रहता है, बाकी के अन्य संजीदा चैनलों की खोज में लग जाते हैं।
दुर्भाग्यवश लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का गैर-सरोकारी अंग बनकर रह गया है जबकि इसका काम भ्रष्टाचार, मिथ्या सूचनाओं और फरेब को उजागर करने वाला प्रहरी बनना है। आज सोशल मीडिया को राजनीतिक स्वार्थों के लिए दुष्प्रचार और वैमनस्य बढ़ाने का हथियार बनाया जा रहा है।
लोकतंत्र का चौथा पाया कहे जाने वाले मीडिया की जिम्मेदारी मुद्दों को सामने लाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में योगदान देने और लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करने की है। परन्तु अब न्यूज़ मीडिया और उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कहीं उसे प्रेस्टिच्यूट कहकर बदनाम किया जा रहा है तो कहीं गोदी मीडिया कह कर। अब यह समझ लेना चाहिए की आवाज उठाने में और शोर मचाने में बहुत अंतर होता है. सीधे और सच्चे शब्दों में कहा जाए तो मीडिया जगत को स्वयं अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए सतत और यक्ष प्रयत्न करने होंगे।
– राजुल राज मिश्र
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